सोमवार, 8 अप्रैल 2013

विश्व स्वास्थ्य दिवस और भारत

               संसार भर के मानव के स्वास्थ्य की रक्षा और सुरक्षा के लिए विश्व स्तर पर देशवाद, धर्मवाद, रंगभेद रहित सोच विक्सित की गयी। इसके लिए स्वास्थ्य के लिए एक उच्च संस्था विश्व स्वास्थ्य संघठन की स्थापना की गयी। मानव स्वास्थ्य हित में किये गए उपायों की उपलब्धता पर सचेत करने के लिए एवं मानव हित का संकल्प जारी रखने के लिए विश्व स्तर पर स्वास्थ्य की समस्याओं के प्रति चिंतन के लिए विश्व स्वास्थ्य दिवस की कल्पना ही नहीं मूर्ति दिया गया। दुनियां के हर देश में स्वास्थ्य के प्रति इस दिन चिंता की व्यक्त गयी और स्वास्थ्य समस्याओं के हल के लिए उपायों पर जोर दिया गया। सभी देशों जी भांति भारत में भी विश्व स्वास्थ्य दिवस पूरे देश में विभिन्न संघठनों के द्वारा मनाया गया।

                आज जब स्वास्थ्य पर चिंतन करना ही है तो जरुरी हो रहा है कि सभी पहलुओं पर नजर डाली जाए। समझा जाए वाकई हमें वो लक्ष्य प्राप्त हुए जिनकी अपेक्षा थी। अपेक्षा भी  थी कि सभी को स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध हो और कोई भी व्यक्ति चिकित्सा के अभाव में जीवन ना खो पाए। आज हम कहाँ पर है, किस हाल पर व्यवस्था है, आगे के आयाम क्या होगे, जनता की अपेक्षाएं भी क्या होगी। सोचना ही होगा और इनको प्राप्ति के लिए सभी को मिलकर प्रयत्न करना ही होगा। यदि हम ऐसा नहीं कर पाए तो मानव को बचा पान  न होगा।

               शहर हो या ग्रामीण क्षेत्र, बीमारी तो देख कर नहीं आती, गरीब हो या अमीर सभी को कोई भी बीमारी हो सकती है और उसकी जान ले सकती है। भारत में स्वतंत्रता के बाद काफी कुछ कार्य किये गए स्वास्थ्य सेवाओ को जनता तक पहुचाने के लिए। लेकिन ये सभी योजनायें उसी प्रकार विन भविष्य को देखे निर्गत की गयी, कि आज समस्या ही समस्या है आम आदमी के स्वास्थ्य रक्षा के लिए।

                  आज मुंबई का कैंसर अस्पताल हो या दिल्ली या फिर किसी भी बड़े स्तर का चिकित्सा सेवा हो, आज हर जगह मरीजों की लाईने लगी हुई है। कैंसर जैसे जान लेवा बीमारिओं में भी लोगो को इलाज के लिए महीनों इन्तजार करना-कराना पड़ता है। ये तो वो है जो सक्षम है इलाज में पैसा लगा सकने में। आम जनता का अस्पताल आज भी सरकारी अस्पताल ही है। यहाँ भी लाईने लगती है, बड़ी ही कठिनता से इलाज मिल पा रहा है। इन अस्पतालों में मलिन बस्तिओं के लोग बहुतायत से इलाज के लिए प्रतीक्षा रत रहते है। मजे की बात तो ये है कि इनको इन सरकारी अस्पतालों में दवा तक खरीद कर लानी पड़ती है। और सभी उपलब्ध सेवाओं के लिए पैसा भी खर्च करना पद रहा है। फिर भी इन गरीबों के स्वास्थ्य को ज्यादा अच्छा नहीं कहा जा सकता।

              
इन सभी अस्पतालों में मरीज भी दो हिस्सों में बट चुका है, एक वो जो महगी चिकित्सा को किसी भी प्राईवेट अस्पताल में ले सकता है। दूसरे वो है जो किसी भी हाल में खर्च करने में सक्षम नहीं है और महगी चिकित्सा से बचने के लिए सरकारी अस्पताल में ही जाते है। उनका सरकारी डाक्टर ही इलाज करता है। लेकिन कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण ये सभी केवल इलाज की जगह तसल्ली की जगह बन कर रह गए है। देश के सभी तरह के कामगार इन्ही मलिन बस्तिओं बीच से ही आते है। जाहिर से बात है की जहाँ पर बीमार व्यक्ति कार्य करेगा तो निश्चित है  वो कार्य अच्छा नहीं हो सकता, वो देश तरक्की करना तो दूर, सोंच भी नहीं सकता है।

               ये तो मलिन और गरीबो के वास्तविक स्थितियां है, अब ग्रामीण क्षेत्र में भी हमें नजर डालनी ही चाहिए और देखना चाहिए  पर क्या चल रहा है। ग्रामीण क्षेत्र का व्यक्ति किस प्रकार और कैसी स्वास्थ्य सुविधा पाप्त कर पा रहा है। कहने को तो देश के राजनीतिक और अपने को विकास का मसीहा मानने वाले लोग स्वास्थ्य सुविधाओ के ग्रामीण क्षेत्र में पहुचाने की बात में अड़ ही जायेगे। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। जिसे सेवा देने वाला ही नहीं ग्रामीण भी भुगत रहे है।

                 डाक्टर तो सप्ताह में एक बार ही प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर जाते है, और दस बजे पहुच कर एक बजे अपने को समेट कर शहर में नजर आते है। ये शहर से ही जाते है और शहर को लौट भी जाते है। जाहिर सी बात है सप्ताह की उनकी सेवा मात्र चार घंटे तक ही सिमट जाती है। आम ग्रामीण फिर अपने स्वास्थ्य के लिए उन्ही नीम-हकीमो के आसरे हो जाते है, जो की रात-विरात काम आते है, और जीवन रक्षा में कुछ सहयोग करते है। इसी सहयोग के दौरान कभी-कभी मर्ज और उसका निदान न समझ पाने पर मरीज की मौत भी हो जाती है। इन डाक्टरों को आज तक सरकार नहीं रोक पाई। और तो और इन पर मुकदमे भी जल्दी से दर्ज नहीं हो पाते। समय- असमय काम आने के कारण ये इन अनपढ़ डाक्टरों का विरोध नहीं कर पाते। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओ का कोई भी अच्छा उदहारण नहीं मिल पायेगा। अस्पताल बने, डाक्टर नहीं, दवा नहीं, नर्स नहीं, विजली नहीं, इलाज नहीं। कही- कही तो ये अस्पताल जंगल में भी बने हुए है, लेकिन इनमे शायद ही कोई एनम या कार्यकर्ती जाती हो। 

               जिस दिन विश्व स्वास्थ्य दिवस का आयोजन था, उसी दिन एक मरीज जिसे ब्रेन हेमरेज शायद हुआ था। राज्य/केंद्र सरकार की अम्बुलेंस सेवा भी काम न आ सकी, बड़े ही मुश्किल से मरीज को दस किलो मीटर दूर एक डाक्टर के पास आना हुआ। जो आयुर्वेद की डिग्री लेकर मरीजो की जिंदगी बचने का काम कर रहे है। उनकी समझ से परे होने पर मरीज को शहर लाने के लिए तेजी पकड़नी पड़ी तब जाकर अपने किराये के वाहन से मरीज को भेजना पड़ा। सरकारी एम्बुलेंस उपलब्ध नहीं हो सकी। भगवान् ही जाने वो व्यक्ति बचा की नहीं। यानी आज भी मरीज के तुरंत चिकित्सा वाले रोगों के लिए पहले उसे उस मुकाम तक पहुचाना होता है, जहाँ कुछ ऐसा हो जाए की मरीज अस्पताल तक पहुच जाए। नहीं तो रात को यदि कोई भी आकस्मिक चिकित्सा की आवश्यकता हुई तो केवल इन्तजार ही करना होगा सुबह होने का।

              यानी आज भी ग्रामीण क्षेत्र की वह दशा जो कभी पहले हुआ करती थी। ये स्थिति और भयानक हो जाती है जब किसी को हार्ट/ब्रेन हेमरेज/गोली का लगना/प्रशव/साप का काटना, आदि के लिए इन्तजार करना और चिकित्सा उपलब्ध न होने की स्थित में जान से हाथ धोना पड़ता है। इन सब स्थितिओ को हम अच्छा तो नहीं कह सकते। न ही इनकी कोई तरक्की ही नजर आ रही है। आज भी गाँव का आदमी या स्त्री इलाज के अभाव में दम तोड़ते है। हम कैसे कह सकते है आज स्वास्थ्य समस्याओ का अंत हो रहा है या खात्मे की और है। बल्कि रोगों की जटिलता बढ़ रही है, रोगी बढ़ रहे है, डाक्टर कम है, दूसरे सहायक कर्मचारी भी कम है।

              आज भी हम नहीं कह सकते की सेहत के मामले में हम अच्छे है। भाई आपने यदि अस्पताल बढे देखे तो आबादी भी बढ़ी, लेकिन उस हिसाब से चिकित्सा सुविधा नहीं।

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